Journey of a Hacker…
Uphold thy ingenuity,
thou shall be rewarded.
Oddment restored,
distress parted.
Thou see a lambent source,
which leads to a distant course.
Climb thy soul on a ship,
& sail to the distant deep.
It is on this journey, that you will see,
what life holds for thee.
The treasure does not lie low, ashore,
for it is on the go.
Strive hard & survive the waves,
for pearls are on this way.
Steady thy captain, steady thy soul,
for we have yet to reach a goal.
The goal is an illusion to keep one tenanted
& thou shall not be cemented.
Brothers in arms…
Why do you persist, why do you feed.
Anguish is not thy need,
Hatred is not thy lead.
Yet thy suffering is indeed.
Thou know not it's reason,
Thou have yet another prison.
And when all that is least,
Still you and me to rebuild.
तन्मयता
(This poem was dedicated to lady love of one of my school friends, who died being drowned in Ganges. I tried to capture her state.)
कोकिल की कुक,
देती संदेश बसंत के अभिसार का ||
दौड़ पड़ती वह निज तट पर,
सदैव डुबते प्रभाकर की राह पर ||
आशा की अभिलाषा धरे, विलक्षण वैभव से परे,
खड़ी है इस घड़ी, उस नाविक की यादों को धरे ||
आशा है, लौट आयेगा सूरज,
हाथों में ले अरूण ध्वज ||
विजय पताका फहराएगा,
और वरूण उसके तेजस्व पर झुक जाएगा ||
डूबता सूरज लाए शोणित की काँति,
और प्रतिबिम्ब फैलाता उसके आगमन की भ्राँति ||
कमल पंखुड़ी खिलती है जैसी,
मधुर मुस्कान लौट आती वैसी ||
पर अस्त हो चले जब दिनकर,
और जब चक्षु न पाते निहारने का सामर्थ्य,
खड़ी रहती पुरी रात भर,
सभी निद्रा विलीन रहते,
जगती वो, और जगता बादलों के बीच मधुकर||
रण की विभीषिका
विरहा का चित्कार
आयुध-जीवी की हुँकार
बिवाई के दर्द पर प्रतिघात
और चीथड़ों पर शोणित के आह्लाद
उफ! यह रण की पुकार
विचलित होते सत्-संघर्षी के विषाद
कटारों पर लिपटे रक्त पर छाया है अहंकार
स्वार्थों तले चले तलवारों की धार
विष्फोटकों पर हड्डीयों के धुम्र का है भार
कटे हाथ, कटे पैरों के तांडव के दृष्य हैं विशाल
और रक्तसनीत पिल्लूओं के तो हैं उन्माद
उफ! अरे, रोको कोई ये नरसंहार
कवि जगत
आज कवि सर्वरस में डुबा ||
खोजता कभी ग्राम जीवन,
तो कभी अपनी स्वतंत्रता रचता||
विकल है कृषक दशा देख,
पाता उनके स्वतंत्रता में भेक||
वेणु के झुड़मुठ में जब,
गाए वह रागिनी,
अश्रु जल पीकर बनाए वह,
स्वतंत्रता की साज भी ||
कभी दौड़ पड़े वह मधुशाला,
तो कभी अपनी स्वतंत्रता पर बलबेदी देने अकेला ||
पहाड़ों में, नदीयों में खोजे वह सार्थकता,
निरर्थक अर्थों का अर्थ निकाले,
पर कभी विचलित न हो मन उसका ||
जीवन चरित्र के विषय में बहुत कुछ कह गया कवि ||
अस्सी मील दौड़ लगाकर, लिखे फिर एक टुकड़ी ||
ऐ मतवाले टोक न उसे,
एकांत में रहने दे,
सार्थक जगत से वह टुट गया है,
निरर्थक उसे रहने दे ||
मैं अनिकेतन और देवदार का संग
काश मैं अनिकेतन होता
यह दृष्य मुझे प्रलोभन देता||
घनी वनस्पति, देवदार का संग||
रश्मिरथी का स्वांग,
इन्द्रधनुषी घटाओं का जाम||
कलकल बहती सरिता,
उपर से मेघदुत के आसार||
आह! काश मैं अनिकेतन होता||
बन गिरी टहलता रोज,
कदम कदम पर इनका सेज||
देवदार में काँटे,
कौन कहता है पागल||
यह तो वह वृक्ष पुरन्दर,
जो करता मेरे नयनों का चुम्बन||
आह! काश मैं अनिकेतन होता||
ऊँचा अम्बर मेरा संगी होता,
और सरिता मेरी राहें,
देवदार दिशा सुचक,
और जीव-जगत मेरे मनोरंजन||
आह! काश मैं अनिकेतन होता||
जब कभी थक जाता,
बैठ जाता इन इंद्रधनुषी लहरों के संग||
और करता सेवन इन पत्तियों का अप्रभञ्न||
निर्मल जल से प्यास बुझाता,
और फिर आगे बढ जाता||
होली के दिन मेरा रूगण मन (My first poem)
आज होली है,
पर ऐ मेरे मन तु कहाँ भटक जाता है ||
शायद तु लोगों कि रुग्ण जीवनमाला देख, खुद भी रुग्ण हो जाता है ||
बड़ा विस्मित है, क्यों भला,
क्या कीचड़ में लिपटे हुऐ बाल्यवस्था को देख आया,
या शराब के करामात, या तु ठिठोली युग में आ गया है ||
कैसा विभत्स मजाक है, नितान्त निन्दनीय ||
उठ उसकी रुग्णता दुर कर, फिर किलकारीयाँ भर ||
Fire
ज्वाला है जो मेरे अंदर,
फुटे तो, जले सात समन्दर||
अन्तर के क्रोध को कैसे बुझाऊँ,
किस सरोवर के तट पर जाऊँ||
उस ताल में जो नीर है,
मेरी अग्नि के अधीन है||
जब सूख जाएगा उस पोखर का जल,
क्या तरल हो पाएगा, मेरा पावक मन ||
किस दिशा को जाऊँ, जो मन काबु कर पाऊँ ||
क्या तरुणी काया कि अभिलाषा,
या मदिरा है एक आशा||
क्या अघोरी रुप पाऊँ, कि माँस भक्षण कर पाऊँ,
या फिर तथागत के दर्शन कर आऊँ ||
पथ अनेक, लक्ष्य एक ||
और लक्ष्य जो मुझमें निहित है,
वही एक निमित है||
वर्तमान में वही हीन है,
पर उसी में सारे अर्थ विलीन हैं ||